क्या होना है और क्या नहीं होना है, जब यह सब ईश्वरी मर्जी पर निर्भर है तो यह अकाट्य और अपरिवर्तनशील है फिर उसे चुपचाप स्वीकार करना ही समझदारी है।
2.
जैसा कि हम कह चुके हैं कि प्रकृति के द्वारा, प्रारब्ध के द्वारा परिस्थितियों के द्वारा जो कुछ हमें दिया गया है उसे उदासीन भाव से चुपचाप स्वीकार करना ही नहीं अपितु प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करना ही संतोष है।
3.
अगर शशि उसे नीचे घसीटती है, तो और क्या है जो उसे उठाएगा, उसे रसातल ही जाने से बचा लेगा? और पंगु होने की बात-क्या वह शशि के भीतर की ही कठोर निर्ममता नहीं है, जो उसे पंगु बनाती है, जिसने उसके जीवन को एक गाँठ में बाँध दिया है और खुलने नहीं देती-क्या उस गाँठ को चुपचाप स्वीकार करना ही कर्तव्य है, क्या उसमें बँधे हुए जीवन को विद्रोह के लिए उभारना कर्तव्य नहीं है?